टेसू राग
टेसू बिन फागुन न होय
बसंत ऋतु आते ही अनायास लाल – लाल टेसुओं की याद हो आती है। बनन – बागन में टेसुओं का फूलना और अन्य वृक्षों से पत्तों का झड़ना यह प्रकृति प्रदत्त उपहार है।आमों का बौर लगना ,कोयल का कूकना व खेतों में सरसों का लहलहाना एक खुशनुमा माहौल बनाता है।इसलिए तो बसंत को ऋतुराज कहा गया है।वन उपवन के सारे वृक्ष कुछ दिनों के पतझड़ से एकदम ठूंठ दिखाई देते हैं।फिर नए सिरे से कोमल – कोमल पत्तों का आवरण चढ़ जाता है और सर्वत्र हरीतिमा का साम्राज्य हो जाता है।
प्राचीन लोक कथा
कहा जाता है कि पहले यह सब नहीं होता था। न वृक्षों से पत्ते झड़ते थे और न ही टेसुओं के फूल खिलते थे। वो तो एक बार वनदेवी बसंत के मौसम में जंगल का दृश्य देख रही थीं। दृश्य का अवलोकन कर वह टेसू के पेड़ के नीचे आकर लता पत्तों का झूला बनाकर झूलने लगी और गाने लगीं
बसंत तू नित्य क्यूं नहीं आता………
नित्य आता तो मै तेरी पूजा करती।।
तभी सम्मुख खड़े एक पेड़ ने कहा – वन देवी जी यह पेड़ तो बड़ा नाजुक है। इतना नाजुक की उसके टूटने का डर है।आप जिस शाखा पर झूल रही हैं , कहीं वह शाखा गिर पड़ी तो आप धम्म से नीचे गिर जाएंगी । अतः आप उतर जाइए।
वन देवी ने उत्तर में कुछ नहीं कहा परन्तु वह झूले से उतर गईं। तभी टेसू के पेड़ ने रोते – रोते अपनी व्यथा बताई। देवी जी, ये सारे पेड़ रात – दिन इसी तरह मेरा मजाक उड़ाते रहते हैं। कहते हैं तू तो धरती पर व्यर्थ है। तुझमें फल – फूल कुछ नहीं लगते। तू कमजोर है और सचमुच उन दिनों टेसू में फल – फूल नहीं लगा करते थे।
देवी ने टेसू की बात गौर से सुनी और वे मुस्कुराती हुई बोली – तू चिंता न कर टेसू । अब की बार तेरी देह में जो फूल लगेंगे वे सारे संसार को आकृष्ट करेंगे।लाल – लाल सुंदर खूबसूरत फूल लगेंगे। फिर जो फल लगेंगे वे औषधोपयोगी होंगे। तब ऐसा समय आएगा ,जब जंगल के सारे पेड़ पौधे अपनी किस्मत को रोते रहेंगे। उनकी शाखाओं से पत्ते एक एक करके झड़ जाएंगे और वे ठूंठ दिखाई देंगे। तब केवल तेरी ही पूजा होगी।
टेसू को यह वरदान देकर देवी अदृश्य हो गई।
जब अगला बसंत आया तो टेसू ने सचमुच देखा कि सारे पेड़ – पौधों से पत्ते एक एक करके झड़ते जा रहे हैं और स्वयं उसके पत्ते हरे हरे हैं और फूल लाल लाल खिलकर सारे जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं तब तमाम अन्य पेड़ मन ही मन ईर्ष्या कर रहे थे परन्तु क्या हो सकता था यह तो देवी का वरदान था।
कहते हैं – तब से बसंत आगमन पर प्रतिवर्ष टेसू खिलने व महकने लगे।
# टेसू के विविध नाम
– लाल वक्र पुष्प होने से शतकुंड।
– पल पल आस लिए फूलने लगा इसलिए पलास ।
– प्राचीन काल में ब्रह्मचारी इसका दंड धारण करते थे इसलिए बृह्मधारण।
– इसे केसू, छिऊस, या ढाक भी कहा जाता है।
– छत्तीसगढ़ में परसा पान कहा जाता है
– अंग्रेजी में बस्टर्ड टीक
# रासायनिक संगठन
पत्तों में ग्लकासाइड्स, पुष्प में पीला रंजक दृव्य बीजों में काइनोऑयल व अलबू मिनाइड व शर्करा। छाल व गोंद में काई नोटिक एसिड व गेलिक एसिड। प्रयोग में पुराने जमाने में पाण्डु रोगी को टेसू के फूलों से रंगा हुआ कपड़ा पहनाए जाने की परम्परा थी। इसके बीज को आक के दूध में पीसकर बिच्छू के दंश में लगाया जाता है। टेसू की जड़ नेत्ररोगों में लाभकारी कही गई है।फुलज्वर , रक्तपित्त , प्रदर व चर्म रोगों में उपयोगी। कहते हैं इसका एक ही पत्ता सेवन करने से गर्भिणी स्त्री को वीर्यवान पुत्र की प्राप्ति होती है।आयुर्वेद में पलास – कल्प का भी विधान वर्णित है। मध्यकाल में टेसू के फूलों से ही रंग गुलाब बनाया जाता था।अरुणाचल में टेसू के फूलों से ही आदिवासी वरमाला बनाते हैं। मुगल बादशाह टेसू के वृक्ष के नीचे बसंत के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते थे।
# साहित्य में टेसू
पद्माकर के नागमणि विरह खंड में टेसू के फूलों से रानी के लाल – लाल आंखों की इस प्रकार तुलना की गई है –
बूडि उठे तरवर सब पाता
भीजी मजीठ टेसू बन राता
पद्माकर ने अनुप्रास की छटा बिखेरते हुए ऋतुराज के संबंध में कहा है कि सारा वातावरण संतमय हो जाता है, पलास की बात तो कुछ और ही है –
त्यों पद्माकर देखो पलासन
पावक सी मानों फूंकन लागी
वे बृजवारी बिचारी वधू बन
बाबरौं लौ लिए हूकन लागी।।
बसंत निराला जी की प्रिय ऋतु है।निराला जी फूलों की महक कलमबद्ध करते हुए कहते हैं
फागुन के रंग राग
बाग बन फाग मचा है
रंग लाई पग – पग धन्य धरा।।
पलास पर उनकी कविताओं का ओज देखते बनता है –
वासंती की गोद में तरना
सोहता स्वस्थ मुख बालारूण
प्रेमहार पहने अमलतास
हंसता रक्तांबर घर पलास।।
सेनापति प्रकृति वर्णन में बड़े अग्रणी है। वन उपवन के बारे में उनकी झांकी देखिए –
बरन – बरन तरू फुले उपवन – वन
सोई चतुरंग – संग दल लहियतु है।
सोभा को समाजू,सेनापति सुख- साजू-आजू
आवत बसंत ऋतुराज कहियतु है।
# लोकजीवन में टेसू
शास्त्रों में वर्णित है कि टेसू के योग से स्वर्ण बनाने की क्षमता है। यह भी कहा जाता है कि टेसू के कांड का मध्य भाग खोखला करके गोबर बांध देने से इसमें नीले या काले फूल निकलते हैं। छत्तीसगढ़ में दीपावली के अवसर पर गाय बैल को बांधने के लिए पारंपरिक सोहाई बनाई जाती है उस पर भी एक कहावत है
परसराम के सौहाई
दरसा में सुत भुलाई
बसंत पंचमी के दिन एरंड की टहनी तोड़कर होलिकाग्नी के स्थान पर गडा दी जाती है यह फागुन पर्व के आगमन का संकेत होता है और गांवों में नगाड़े बज उठते हैं-
छोटे छोटे रुखवा परसा के
भुइंया लहसे जावे
पेड़ तरी बैते कन्हैया
अऊ मुख मुरली बजावे।
उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर हमने जाना कि टेसू का कितना अधिक महत्व है। ” ढाक के तीन पात ” कहकर चिढ़ाए जाने वाले इसी के परसा पान के दोने में माता देवालयों में अंकित के दिन धान पहुंचाने की परम्परा है। इतना ही नहीं पलास पत्तों के दोने जल रखकर पूर्वजों को तर्पण करने की भी लोक परम्परा है।
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