गिरिराज सुधा, कोटा
पीतल की पिचकारी में घुले हैं रंग हजार,
दुश्मन दोस्त हो गए, है होली का त्यौहार।
रंगों में सब धुल गई, आपसी तकरार,
सबके दिलों में रहे, प्यार की दरकार।
होली उत्सव प्रीत का, खेलें मिलकर फाग,
फागुन मन में बो गया, वासंती अनुराग।
फागुन में रंग हो गए, पूरे मस्तीखोर,
गौरी को तकते रहें, कब आए इस ओर।
चैत की निबौलियाँ, धनिया भी फगुनाए,
कपोल पर महके पलाश, मादकता मन भाए।
इंद्रधनुष उतार लो, फागुन के दिन आए,
कोयल के स्वर में कोई, राग वसंती गाए।
अमलतास चुपके खड़ा, लेकर हाथ गुलाल,
पानी भी मदिरा गया, छूकर रंगीं गाल।
बरसाने की छोरियाँ, छेड़ें गोकुल ग्वाल,
प्रेम इशारों से रचें, फागुन बीच बवाल।
वंशी बजे जब कृष्ण की, होली की रुत आए,
बिन होली के सारा ब्रज, प्यासा ही रह जाए।
होली पर बजने लगे, सारंगी संतूर,
जीवन बहका-सा रहे, बिन फाग दस्तूर।
पीतल की गागर लिए, टेसू घोले रंग,
लोटे रंग उछालती, गोरी पीकर भंग।
यौवन-सी फगुनाई है, मन वसंत पर ताल,
गौरी के उत्पात से, फागुन हुआ हलाल।